Friday, March 26, 2010

दफ़न

दफ़न

क्या पाया पाकर हमने,
कैसे ख्वाब देखे नीद में जाके.

इल्जाम लगाने की आदत हो गयी है जिंदगी,
एक हसी दौर ताने खा गए.

मांझे की मानिंद है जिंदगी,
बजाये डोर हाथ काट रही है.

कब खत्म होगा बेबुनियादी बेवजह सफ़र,
रेत की आंधिया गले पड़ रही है.

मेरा हमसफ़र ही मेरा कातिल है,
ये लिखावट सीने में रख कब से फिर रहा हू मैं

न मैं उसे ख़ुशी दे सका, न वो मुझे मायने,
आँख मिचौली के खेल में स्याह धोखा.

वो मुझे यू ही पसंद था, मैं उसे यूही,
साथ निभाने के वायदे मेमने है.

आओ साथ दफ़न करे सांझा बातें-यादे,
इनमे कही से भी कोई जान बाकी नहीं है.


......... पारितोष नेगी

Monday, February 22, 2010

छप छप

छप छप

आँगन चोरो की गठरी.

तुम बिन जंगल निपट वीरान, तुम बिन चाँद बूरा,
तुम बिन स्वास निष्प्राण , तुम बिन जीवन कांच का चूरा .

तुम बिन सपने घपले घपले , तुम संग अपने लगते अपने,
तुम बिन कमरों के टूटे टखने , तुम संग दरवाजे और खिरकी बहने बहने .

तुम बिन भरने लगते आँहो के कूवे, तुम संग लुटते बाँध के गहने,
तुम बिन जीवन खट्ठी इमली की बासी चटनी, तुम संग जीवन पूवा पकोरा .

तुमने भर दी मेरी हसने की टपरी
अब ना आये, अब न छाए बादल काले घनरे.

न समझो मुझे रिश्तेदारों की उलट पहेलिया, मैंने तो अलमारी से निकाल दो घूट हैं पी ली.

बरखा के गीले मौसम में तुम मेरी अदरक की चाय और मैं तुम्हारी काली छतरी.

Monday, October 5, 2009

: :

Tu mujhse kuch aur bhi kah sakta tha
Magar meri kahani tujhe pahchani lagi.